रवीश की कलम से : ये वह भोजपुरी नहीं है

नई दिल्ली: चुनाव के समय अलग अलग जगहों से गुजरते हुए इलाके की भाषाई वीडियो संस्कृति से भी दो चार होने का मौक़ा मिलता है। लोक संस्कृति को वीडियो संस्कृति से अलग करना ज़रूरी है। भोजपुरी मातृभाषा होने के कारण मैंने बनारस के होटल में भोजपुरी म्यूज़िक चैनल भी ख़ूब देख रहा हूं। गाने देखते हुए पता चल रहा है कि अश्लीलता के संकट के अलावा भोजपुरी जन की आकांक्षाएं कैसे प्रकट हो रही है।

एक गाना आ रहा है। नायक सफ़ेद पतलून और क़मीज़ में गा रहा है। कह रहा है कि दादाजी चाहते हैं कि मैं डाक्टर बनूं और पिताजी चाहते हैं कि दरोगा। लेकिन मैं नेता बनकर देश चलाना चाहता हूं। अपने मन की करना चाहता हूं। किसी के बाप का डर नहीं है। नायक नाचते गाते जेब से नोट निकाल कर कहता है कि नेतागीरी में ख़ूब पैसा है। कोई अच्छी पार्टी पकड़कर नेता बन जाना है। यह गाना घूसखोरी का स्वप्न दिखाता है। कालाबाज़ारी का जश्न मनाता है। इसे लेकर कहीं कोई नैतिक उलझन नहीं है। हमारा समाज व्यावहारिकता के नाम कितना खोखला होता जा रहा है। कोई भ्रष्टाचार करने की बात करते हुए नायकत्व का दावा कैसे कर सकता है।

एक फ़िल्म का नाम है घुस के मारब। मतलब घर में घुस के पिटाई करूंगा। भोजपुरी वीडियो में भोजपुरी नाम की है। हीरो कभी बंबइया तो कभी पंजाबी तो कभी तमिल लगता है। ज़रूर ये सब गाने आज भी खेतों की पगडंडियों पर फ़िल्माएं जाते हैं। नदी, सरसों के खेत हैं और गांव है। भोजपुरी फ़िल्म और गाने मौलिक कम डबिंग ज़्यादा लगते हैं। एक गाने में मर्द तांगेवाला आता है। मूल रूप से मर्द अमिताभ बच्चन की फ़िल्म है। उसी का भोजपुरी रूप लगता है। नायक के तांगे पर दोनों तरफ़ अमिताभ बच्चन का कट आउट रखा हुआ है। यह मर्द दावा कर रहा है कि वह मेहनत की कमाई से खाता है। नौटंकी शैली बाक़ी है। आइटम सॉन्ग डिस्को में नहीं बल्कि खेतों में फ़िल्मायें जा रहे हैं।

भोजपुरी भाषी कामगार देश और दुनिया में फैले हैं। कई लोगों का अपनी मिट्टी से संपर्क इन्हीं गानों से बना रहता है। जैसे वह अपनी जड़ों से कट गया है एजुकेशन गाने भी जड़ों से कट कर ख़ालीपन को भरने की जगह उसे और बढ़ा रहे हैं।

पिछले बीस सालों में पलायन ने ओरिजीनल समाज में कई बदलावों को जन्म दिया है। जैसे कभी पलायन ने पंजाब को पैसों से भर दिया तो पंजाबी समाज में ख़ुशियां वैभव प्रदर्शन का ज़रिया बनने लगीं। वही हाल भोजपुरी समाज का हो रहा है। एक गाने में पार्टी का सीन है। गाने का प्लाट बीस साल पुरानी हिन्दी फिल्म का है। नायिका शराब के नशे में गा रही है 'बानी हम मूड में हो नज़र भइल नशा बा हो।' नशे में अपने हीरो की बेवफ़ाई को भरी महफिल में कोस रही है। इन गानों में एक किस्म का नवदौलतपन दिखता है।

आप इन गानों से गुज़रते हुए अलग दुनिया में चले जाते हैं। हमारी नज़रों से अनजान यह दुनिया चुपचाप फलफूल रही है। इसका अपना एक स्वतंत्र बाज़ार है। भोजपुरी गानों की अश्लीलता और भौंडापन गंभीर समस्या है। सारे गाने ऐसे तो नही हैं पर भोजपुरी सिनेमा इस जाल में फंस चुका है। परिवार के साथ कम इसे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और दुबई के अकेले बंद कमरों में प्रवासियों को परोसा जा रहा है। चुनाव के समय सिर्फ नेता को मत देखिये। चुनाव सिर्फ जीडीपी बढ़ाने का प्रयोजन नहीं है। यह मौक़ा है भाषा संस्कृति से जुड़े तमाम सवालों पर बहस करने का भी है। पर इन सब बातों को लेकर मैं ही क्यों बड़बड़ा रहा हूं।
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